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कमर जनजाति के साथ छल? प्रधानमंत्री आवास योजना के नाम पर शोषण की परतें खुलीं

 जियो ट्रैकिंग के नाम पर लुट

हेमचंद नागेश ND24TV.IN

छुरा- ब्लॉक मुख्यालय से महज़ 5 किलोमीटर पर बसे ग्राम पंचायत खरखरा के आश्रित ग्राम धरमपुर में निवासरत कमर जनजाति, जिन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा "दत्तक पुत्र" का दर्जा प्राप्त है, आज भी बुनियादी सुविधाओं को पारदर्शीता, व सुगम पद्धति से प्राप्त करने से वंचित हैं। भारत सरकार की बहुप्रचारित प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण), जिसे गरीबों के लिए पक्के मकान उपलब्ध कराने हेतु शुरू किया गया था, उस योजना के तहत यहां के निवासियों को कागजों पर तो लाभ उल्लेखनीय वह सराहनी रूप से मिल रहा है, लेकिन जमीन पर स्थिति इसके विपरीत है, यहां योजनाओं का लाभ हितग्राहियों को स्थानी बुद्धिजीवियों के बंदरबन के सहारे मिल रहा है, छत्तीसगढ़ में नई सरकार के गठन के बाद इस योजना को विशेष गति दी गई थी, विशेषकर अति पिछड़ी जनजातियों के लिए, जिनमें कमर समाज भी सम्मिलित है। योजना के अंतर्गत प्रत्येक हितग्राही को दो लाख रुपये की राशि स्वीकृत की गई थी, ताकि वे सम्मानपूर्वक अपने घरों का निर्माण कर सकें।

किन्तु जमीनी हकीकत यह है कि इस योजना में भ्रष्टाचार व शोषण की परतें लगातार सामने आ रही हैं। ग्रामवासियों ने बताया कि आवास स्वीकृति की प्रक्रिया में "जिओ ट्रैकिंग" के नाम पर प्रति लाभार्थी 200 से 300 रुपये लिए जा रहे हैं। यही नहीं, "चाय-पानी", "दौड़-भाग" जैसे बहाने बनाकर 2 से 3 हजार रुपये तक की अवैध वसूली की जाती है। कई हितग्राहियों को यह भी नहीं बताया गया कि सरकार द्वारा कितना पैसा दिया गया है, कब-कब किस्तें आई हैं, और कितना काम बाकी है, इसके लिए वे किसी बुद्धिजीवी ठेकेदार पर निर्भर हैं, इस तरह की अपारदर्शिता ने भोले-भाले कमर जनजाति के लोगों को ठेकेदारों और आवास सहायकों के रहमो करम पर छोड़ दिया है। बिना जानकारी के ये लोग उन्हीं के निर्देशों पर हस्ताक्षर कर देते हैं, परिणामस्वरूप अधिकांश मकान उचित मापदंड पर बन पा रहें हैं।

योजना के तहत स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं कि प्रत्येक आवास में कम से कम एक कमरा, एक हॉल, रसोई, रोशनदान व खिड़कियों की सुविधा होनी चाहिए। लेकिन धरमपुर में जिन मकानों का ठेकेदार द्वारा निर्माण हुआ है, उनमें से कई में केवल दो कमरों का ढांचा खड़ा कर दिया गया है, तो कहीं खिड़की नहीं है तो कही चौखट नहीं है ऐसे अधूरे ढांचों को लाभार्थियों द्वारा "सरकारी मकान" मान लेना इस बात का संकेत है कि उन्हें योजना की जानकारी न के बराबर है। वैसे तो आवास योजना में किसी प्रकार के ठेका पद्धति का उल्लेखनीय है कि हितग्राही द्वारा बनाए जा रहे मकान में सरकारी इंजिनियर के मार्गदर्शन निर्देशन व हितग्राही के श्रम सहयोग से कार्य होना होता है जिसमें मनरेगा के तहत भी उनको लाभ मिलता है किन्हीं कारणों से यदि वे मकान बनाने में वह सक्षम नहीं है और ठेका दे दिए हैं तो वह हितग्राही की अधिनस्थ कार्य करने को बाध्य होना चाहिए मगर इनमें 'ठेकेदार-प्रशासन गठजोड़' की संज्ञा दी जा रही है,जिसका प्रशासनिक रूप से कोई निर्देश नहीं है आरोपों की मानें तो कई ठेकेदार सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से हितग्राहियों के पैसों का बंदरबांट कर रहे हैं।

प्रशासनिक उदासीनता का आलम यह है कि तकनीकी सहायक या अन्य निगरानी अधिकारी शायद ही कभी इन गांवों में पहुंचे हों। जिन ठेकेदारों ने अधूरा निर्माण किया, उनके विरुद्ध कोई ठोस कार्यवाही अब तक नहीं की गई है। आरोपित खिलेश्वर साहू ने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने जियो ट्रैकिंग के नाम पर पैसे लिए और अपने "पेट्रोल खर्च" के लिए भी राशि वसूली। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी माना कि उनकी नियुक्ति से पहले ही वे यह कार्य कर रहे थे। एक बार पंचायत स्तर पर शिकायत हुई तो उसे ग्रामवासियों की बैठक में समझौते से निपटा दिया गया। ऐसे समझौते और मौन प्रशासनिक रवैये से सवाल यह उठता है कि क्या अति पिछड़ी जनजातियों की योजनाओं में पारदर्शिता नाम की कोई चीज बची है? और यदि नहीं, तो इस लूट व शोषण की जिम्मेदारी कौन लेगा?

इस विषय पर जनपद पंचायत छुरा के मुख्य कार्यपालन अधिकारी सतीश चन्द्रवसी का कहना है कि "यदि इस प्रकार का कोई भी शिकायत लिखित में आएगा या फिर समाचार पत्र के माध्यम से मिलता है तो उसपर जांच टीम गंठीत कर जांच के आधार पर उचित कार्रवाई के लिए जिला स्तर पर प्रेषित किया जाएगा।"

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